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Wrestler Protest : आज देश के खेल प्रेमियों की क्या हालत है ? पहलवान आज सोशल मीडिया पर भिड़ा है क्यों?

क्यों? हमारे देश का पहलवान बदल रहा है

जाने – माने शायर राहत इंदौरी के शेर में बदलाव के लिए माफी के साथ बात शुरू करते हैं. इन दिनों बजरंग पूनिया, योगेश्वर दत्त, विनेश फोगाट, साक्षी मलिक जैसे पहलवान सोशल मीडिया में भिड़े हुए हैं.

हर कोई एक दूसरे को झूठा ठहरा रहा है. हर घंटे कोई ना कोई ट्वीट आ रहा है. सबके अपने-अपने खेमे हैं. एक ट्वीट करता है तो उसका खेमा उस पोस्ट के प्रचार प्रसार में लग जाता है. दूसरे पक्ष की भी यही कहानी है. रेसलिंग मैट पर जो पहलवान विरोधी पहलवानों के खिलाफ दांवपेच लगाते थे वो अब अपने ही साथी पहलवानों की पोल खोल रहे हैं. पुराने वीडियो, पुराने फोटो पोस्ट किए जा रहे हैं.

मामला बहुत पेचीदा है. पुलिस, कोर्ट, कचहरी सब कुछ हो गया है. कौन सही है, कौन गलत? इसका फैसला अब अदालत को करना है… लेकिन एक फैसला हो चुका है. इस पूरे मामले ने इस खेल की साख को नुकसान जरूर पहुंचाया है. जिस तरह की भाषा, जिस तरह का बर्ताव इन जाने-माने पहलवानों ने सोशल मीडिया में किया है, उसे ‘जस्टिफाई’ करना मुश्किल है. आने वाले समय में अदालत का फैसला भी आ जाएगा. लोग जान सकेंगे कि पूरे घटनाक्रम में कौन दोषी है लेकिन जो चीज अब शायद ही कभी लौटेगी, वो है इस खेल की साख.

 

खेल सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए था लड़ाई गंभीर है. बृजभूषण शरण सिंह पर महिला पहलवानों के शारीरिक शोषण का आरोप है. दोषी पाए जाने की सूरत में उन्हें सजा मिलनी चाहिए. इस बात से शायद ही कोई असहमत होगा लेकिन अभी जिस तरह की लड़ाई पहलवानों में छिड़ी है वो तकलीफ देती है. पहलवान चाहे इस पक्ष के हों या उस पक्ष के, उन्हें खेलप्रेमियों ने सम्मान दिया है. प्यार दिया है. स्टेडियम में बैठकर उनका हौसला बढ़ाया है. टीवी की स्क्रीन के सामने बैठकर उन्हें ‘फॉलो’ किया है.

आज वही खेलप्रेमी इन पहलवानों के पोस्ट भी पढ़ रहे हैं, जिन्हें वो देश का स्टार मानते थे, वो भिड़े हुए हैं. ऐसा लग ही नहीं रहा है कि इन पहलवानों को देश का ‘एम्बेसडर’ कहा जाता है. ऐसा लग ही नहीं रहा है कि इनमें खेल को लेकर प्यार भी बचा है. भूलिएगा नहीं ये वही पहलवान हैं जो ओलंपिक्स में कसम लेते हैं कि खेल गरिमा का ध्यान रखेंगे, दुनिया को खेलों के माध्यम से बेहतर बनाएंगे. वही एथलीट पके पकाए राजनेताओं की तरह एक दूसरे पर हमला कर रहे हैं.

2008 का साल याद कीजिए

1952 से लेकर 2008 तक ऐसा लगता था कि भारतीय पहलवान ओलंपिक्स में बस देश की नुमाइंदगी करने जाते हैं लेकिन 2008 में ये सोच गलत साबित हुई. 1952 में पहलवानी में केडी जाधव के मेडल जीतने के 56 साल सुशील कुमार ने बीजिंग ओलंपिक में ब्रांज मेडल जीता था. 2008 के बाद कुश्ती के खेल की लोकप्रियता बढ़ी. नई पीढ़ी इस खेल से जुड़ी. अखाड़ों में भीड़ बढ़ी. नए-नए अखाड़े बने. पहलवानों में आत्मविश्वास जागा कि वो भी ओलंपिक मेडल जीत सकते हैं. फिर लंदन ओलंपिक्स में भी सुशील कुमार ने मेडल जीता.

इसी ओलंपिक में योगेश्वर दत्त का भी मेडल आया. ये ‘हाई-टाइम’ था. बाजार ने भी इस खेल में दिलचस्पी ली. पहलवान भी विज्ञापनों में दिखने शुरू हो गए लेकिन अब करीब दस साल बाद ये खेल जहां खड़ा है वो स्थिति चिंता वाली है. सुशील कुमार जेल में हैं. उन्हें जेल में धीरे धीरे दो साल बीत गए हैं. उन पर साथी पहलवान की हत्या में शामिल होने का आरोप है. किसी भी खेल के लिए ये बड़ा झटका है और अब दूसरा झटका वो घटनाक्रम है जो इन दिनों चल रहा है. भाषा के तौर पर तलवे चाटने से लेकर गाय की पूंछ पकड़कर सच और झूठ बोलने की बात हो रही है. इस चिंताजनक स्थिति आप खुद ही समझ सकते हैं.
पहलवान तो ऐसे नहीं होते थे.

क्रिकेट के खेल में एक दूसरे के खिलाफ गुटबाजी होती थी. टेनिस में लिएंडर पेस-महेश भूपति से शुरू हुआ विवाद बहुत खराब रास्ते पर गया था लेकिन पहलवान ऐसा करेंगे, ये अब भी चौंकाने वाला है. पहलवान तो मिट्टी से जुड़े होते हैं. झुक कर चलते हैं, भाई साहब-भाई साहब करके बात करते हैं. आप अखाड़े में जाइए तो आपको स्टील के जग में शर्बत पिलाते हैं. गुड़ खिलाते हैं. इन्हें अंग्रेजी छोड़िए अच्छी तरह हिंदी बोलनी नहीं आती. इनके मैनेजर नहीं होते. ये खुद ही फोन उठाते हैं. इन्होंने बचपन में संघर्ष देखा होता है. दो वक्त की रोटी मुश्किल से खाई है. किसी के पिता ने मवेशी बेचकर कुश्ती कराई है, किसी ने जमीन. सब मिलाकर कहें तो पहलवान संस्कारी माने जाते थे लेकिन वो संस्कार सामने आ गए. राहत इंदौरी का शेर याद आ रहा है –
अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए, कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए.

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